मन की कोर्ट (हिन्दी कविता)





सवेरे सवेरे हुआ झगडा trust का doubt से
 मामला पहुंचा सीधा मन की कोर्ट में
Trust बोला मैं हूं सच्चा,
 Doubt बोला मैं हूं सच्चा ।

दिल  का वकील हुआ़ बेचैन,
दिमाग  के जज़ भी हुए परेशान ।
 कैसे दे सही न्याय ?
 किसकी तरफेण में दे फैसला ?

 दिमाग़ के जज ने सोचा फिर अदभुत उपाय ,
 दोनों को छोड़ आया अनुभव के जंगल में ।
 मुंह फुलाकर बैठा था Doubt पूर्व कोणे में,
तो मुस्कुराके खड़ा था Trust पश्चिम कोणे में ।

जैसे की रेखाखंड के दो बिंदु जो कभी मिलते नहीं ।
 जैसे की पहला और आखिरी कदम कभी मिलता नहीं ।

अंधेरी सुमसाम राह और गाढ़ जंगल ,
तेज़ हवा और उपर से पवन का झोका ।

डर के मारे चिल्लाया जोर से Doubt ,
 पसीने से हो गया लथपथ ये Doubt ।

 Trust पर तो नहीं हुआ आफ़त का कुछ भी असर ,
 मन के कोणे में जाकर बैठा बनाके मन को शांत । 

Ego को रख कर नेवे पे,
 गया Doubt शरमाते Trust के पास ।

Trust ने किया अतिथि की भाती स्वागत मुस्कुराके Doubt का ।
 जोर से पकड़ा हाथ Doubt का,
 हवा का झोंका भी हुआ लापता ।

 दोनों के हाथ एक होकर बने हथियार, 
आफत मिशन का हुआ आरंभ ।
 आफत मिशन हुआ सफल,
 मंजिल तक पहुंच गए दोनों ।

अपनी करणी पर किया पस्तावा Doubt ने,
 माफी मांगने लगा सामने Trust के ।

Trust बोला,
 तू भी सही है तेरी जगह पर,
 मैं भी सही मेरी जगह पर ।

नहीं है पूरा जहां सोने के मलमल का ,
नहीं है पूरा जहां राख का भंडार ।
एकबार में ही न अंदाज लगाडो,
किसी के Nature का फ़ैसला ।

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